ध्यान

 

    जब तुम ध्यान में बैठो तो तुम्हें बालक की तरह निष्कपट और सरल होना चाहिये । तुम्हारा बाह्य मन बाधा न दे, तुम किसी चीज की आशा न करो, किसी चीज के लिए आग्रह न करो । एक बार यह स्थिति आ जाये तो बाकी सब तुम्हारी गहराइयों में स्थित अभीप्सा पर निर्भर है । और अगर तुम भगवान् को बुलाओ तो उनका उत्तर भी मिलेगा ।

२६ जनवरी, १९३५

 

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     हर ध्यान को एक नया अन्तःप्रकाश होना चाहिये क्योंकि हर ध्यान में कुछ नया घटता है ।

 

 

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अगर तुम ध्यान में प्रकट रूप से प्रगति नहीं भी कर रहे, तो भी लगे रहना और अपनी निम्न प्रकृति के विरोध से ज्यादा हठी होना अच्छा है ।

 

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    माताजी,

 

        मैं आपसे यह जानना चाहूंगा कि मैं अभी ध्यान के लिए जितना

    समय देता हूं, उससे ज्यादा समय देना मेरे लिए अच्छा है क्या ? में

    सवेरे शाम मिलाकर दो घंटे लगाता हूं लेकिन मैं अभी तक ध्यान में

    काफी सफल नहीं हूं । मेरा भौतिक मन मुझे काफी तंग करता है | मैं

    आपसे प्रार्थना करता हूं कि वह शान्त हो जाये और मेरी चैत्य सत्ता

    बाहर आ जाये । मन को पागल यन्त्र की तरह काम करते और हृदय

    को पत्थर की तरह सोते देखना कितना कष्टकर है । माताजी, वर

    दीजिये कि मैं अपने हृदय में आपकी उपस्थिति को हमेशा अनुभव

    कर सकुं ।

 

ध्यान के समय को बढ़ाना बहुत उपयोगी नहीं होता जब तक कि ध्यान की प्रेरणा मन के मनमाने फैसले से नहीं बल्कि सहज रूप से अन्दर से न आये ।

 

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     मेरी सहायता, प्रेम और आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ हैं ।

१७ अक्तूबर, १९३९

 

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     ध्यान के लिए निश्चित घण्टे रखने की अपेक्षा हमेशा एकाग्र और अन्तर्मुखी वृत्ति रखना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है ।

 

 

     जब आप हमें ध्यान के लिए कोई विषय देती हैं तो हमें उसके बारे

     में क्या करना चाहिये ? उसके बारे में सोचा करें ?

 

अपने विचार को एकाग्र रूप से उस पर केन्द्रित रखो ।

 

     और जब कोई विषय न दिया जाये तो क्या इतना काफी है कि हृदय

     केन्द्र में आपकी 'उपस्थिति' पर एकाग्र हों ? क्या हमें किसी सूत्रबद्ध

     प्रार्थना से बचना चाहिये ?

 

हां दिव्य उपस्थिति पर एकाग्र होना काफी है ।

 

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      (ध्यान के लिए विषयों के उदाहरण)

 

नूतन जन्म । नयी चेतना में जन्म । चैत्य चेतना ।

५ जुलाई, १९५७

 

       शरीर में भगवान् के प्रति अभीप्सा कैसे जगायी जाये ।

२६ जुलाई १९५७

 

        अपनी दृष्टि को अन्दर की ओर मोड़ना । अपने अन्दर देखना ।

२ अगस्त, १९५७

 

        असंयत वाणी के दुष्प्रभाव ।

९ अगस्त, १९५७

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